(तनीषा नेगी द्वारा सचित्र)
घर क्या है?
घर वह जगह है जहां हम सुकून महसूस करते हैं, जहां हमारी नींद पूरी होती है और हमें किसी का डर नहीं लगता। लेकिन दुख की बात है कि हमारा स्वर्ग जैसा घर आज नष्ट होता जा रहा है, लेकिन युद्ध से नहीं, बल्कि विकास के नाम पर।
आधुनिकता की दौड़ में शामिल होने वाले बड़े-बड़े उद्योग आज हमारी धरती को, जो बहुत ही नाजुक है, खोखला बना रहे हैं और उनमें पनपने वाले जीवन को नष्ट कर रहे हैं। हर साल किन्नौर की भूमि को जकड़ने के लिए एक नई त्रासदी तैयार बैठी है, चाहे वह हिमपात कम होना हो या अत्यधिक गर्मी पड़ना। क्या विकास का तोहफा ऐसा ही होता है? सोचने वाली बात है।
11 अगस्त, 2021 को हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में निगुलसारी गांव के पास NH5 पर एक बड़ा भूस्खलन हुआ। यह पहली तबाही नहीं थी जिसने किन्नौर की धरती को झंजोड़ दिया था। उरनी, बटसेरी और अन्य कई घटनाएं किन्नौर में पहले से ही हो चुकी थीं। इस त्रासदी के शिकार हम सब हुए - हमने अपने को खोया, हमारी फसलें समय से मंडी तक नहीं पहुंच पाईं, आगमन का एक मात्र रास्ता बंद हो गया, और टूरिज्म उद्योग को भी काफी नुकसान झेलना पड़ा। क्या जब तक जान-माल की क्षति न हो, तब तक सरकार की अंतरात्मा चैन से बैठी रहेगी? कब हमारे सरकारी अधिकारी इस मुद्दे को गंभीरता से लेंगे, नीतियों का निर्माण करेंगे और उन्हें लागू करवाएंगे? जोशीमठ के डूबते शहर ने लोगों का ध्यान तभी खींचा जब हालात विकट हो गए और 700 से अधिक घरों में गंभीर दरारें आ गईं। विकास के नाम पर हो रहे अनियंत्रित कार्यों पर रोक लगाने के लिए क्या किसी आपदा का आना अनिवार्य है? जब तक बड़े पैमाने पर नुकसान न हो, तब तक इन मुद्दों पर ध्यान नहीं जाएगा? अगर ऐसा है, तो 13 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर वाला एक दूर-दराज क्षेत्र में बसा किन्नौर शायद ही कभी लोगों का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर खींच पाए।
किन्नौर और जोशीमठ की समानताएं
जिस प्रकार का विकास जोशीमठ में हुआ है पिछले दशकों में किन्नौर में भी उसी प्रकार का विकास देखा जा सकता है।
पहला, एक नाजुक भूमि पर मुनाफाखोर कंपनियों का प्रवेश, जिनके लिए पर्यावरण और मूलनिवासी कोई मायने नहीं रखता है।
पिछले कुछ दशकों में किन्नौर में बड़ी संख्या में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण देखा गया है।
किन्नौर की रक्तधारा जैसी नदी और झरनों में ना जाने कितने छोटे-छोटे, बड़े-बड़े, और ना जाने कितने अलग-अलग प्रकार के बांधों का निर्माण हुआ है।
हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में जल विद्युत उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, जो पूरे भारत के जल विद्युत उत्पादन का लगभग 1/4 है। Directorate of Energy of Himachal Pradesh (DOE) द्वारा सृजित परियोजनाओं की सूची के अनुसार हमारे राज्य में स्थापित जलविद्युत परियोजनाओं की क्षमता 18,082 मेगावॉट है, जिसमें से 5,178 मेगावॉट किन्नौर की 22 जलविद्युत परियोजनाएं उत्पन्न करती हैं।
किन्नौर का पॉवर हाउस बनना वहा के भोगोलिक परिस्थिति के अनुकूल है, लेकिन किन्नौर जिला आपदा प्रबंधन योजना 2017 के अनुसार, हमारा हिमालय सबसे नवजात पर्वत श्रिंकला है, जिसके कारण किन्नौर की अस्थिर भू-जलवायु परिस्थितियां इसे काई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील बनाती हैं।
किन्नौर के जलविद्युत परियोजना का निर्माण और रखखव के लिए कम्पनिया अनियामित रूप से विस्फोटक का प्रयोग करती है, और साथ ही उनके अवैज्ञानिक खनन, टनलिंग की तकनीकी, पेड़ो के कटाव, नदी घाटियों में मालवा डम्पिंग से किन्नौर का भू-जलवायु की स्थिति का संतुलन खराब कर आपदाओं को जन्म देती हैं।
दूसरा, विशाल परियोजनाओं के निर्माण के समय पर्यावरण विशेषज्ञों की सलाह को नजरअंदाज करना उचित नहीं है।
हिमधारा की 2019 की रिपोर्ट "हिडन कॉस्ट ऑफ हाइड्रोपावर" हाइड्रोपावर के हानिकारक प्रभाव पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि, संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र भूवैज्ञानिक रूप से सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि हिमालय की टेक्टोनिक प्लेट लगातार ऊपर की ओर उठ रही है, जिससे सतह पर तनाव पढ़ा रहा है, और वो भूस्खलन प्रवृत्त हो रही है। हिमाचल प्रदेश का 97.42% भूमि क्षेत्र भूस्खलन प्रवृत्त है और कम से कम 10 बड़े जलविद्युत परियोजनाएं मध्यम और उच्च जोखिम क्षेत्र में स्थित हैं।
साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि जब सार्वजनिक जांच की बात आती है तो भारत और चीन अपने बांध डिजाइनों के बारे में गुप्त रहते हैं। शायद ही कभी स्वतंत्र इंजीनियरों को संरचनाओं की स्थिरता का आकलन करने की अनुमति दी जाती है और यह संभावना है कि ये बांध क्षेत्र में आने वाले सबसे घातक भूकंपों से बचने के लिए सुसज्जित नहीं हैं। ऐसी स्थिति में झील के आकार के यह बांध ढह सकते हैं और इन जलाशयों का पानी नदी के रास्ते में आने वाले हर छोटे बड़े कज़बो एवम शहरो को डूबा सकता है।
तीसरी और आखिरी वजह, स्थानीय लोगों को विकास की रणनीति में नजरअंदाज कर दिया गया है।
संविधान की पांचवीं अनुसूची किन्नौर को एक अनुसुचित जनजाति के रूप में नामित करता है। यहां के लोगो का जीवन और अस्तित्व जमीन और जंगल पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है। हिमालय की गर्भ में बसा ये क्षेत्र ज्यादातर ठंडा रहता है, गर्मियों के कुछ ही महीनों में यहां पर कृषि होती है। कुल भूमि का 50% से अधिक बंजर चट्टानों और ठंडे रेगिस्तान से ढका हुआ है और 80% भूमि वन विभाग के अधीन है। भारत सरकार ने एसटी और अन्य वनवासियों के लिए 2006 में एक कानून लाया था जिससे हम एफआरए के नाम से जानते हैं, ये कानून उनके जमीन संबंधित हितो की रक्षा करता है।
सुजीत कुमार द्वारा प्रकाशित ईपीडब्ल्यू की एक रिपोर्ट में उजागर है कि, एफआरए (वन अधिकार अधिनियम) के खराब पालन की वजह से मूल निवासों के हितों का खनन करते हुए सरकार ने जमीनी अधिकार को अपने नियंत्रण में कर लिया है। उदाहरण के लिए, कशंग जलविद्युत परियोजना में, लिप्पा गाँव के अधिकारियों ने "अनापत्ति" का प्रमाण पत्र जारी किया कि जिस जंगल की ज़मीन है उसका उपयोग परियोजना में किया जा सके। उन्हें यह प्रमाणपत्र ग्राम सभा से प्राप्त होने के बिना जारी किया गया, जो कि धारा 3(2) एफआरए के अंतर्गत अनिवार्य है।
अस्तित्व पर सवाल
किन्नौर एक ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र है जो ओल्ड हिंदुस्तान तिब्बत रोड पर स्थित है। यह एक प्राचीन व्यापार मार्ग है, जिसे "वूल रोड" के नाम से भी प्रसिद्ध किया जाता है। इस क्षेत्र में धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का समृद्ध संगम है जिसे भारत, तिब्बत, मध्य एशिया, और चीन के बीच प्रवेश द्वार होने के कारण देखा जा सकता है।
किन्नौर की सुंदर घाटियों से सुसज्जित धरती अनेकों वादियों और ट्रेक्स का घर है। यहाँ हर साल हजारों प्रयास किए जाते हैं जो इस क्षेत्र के मूल निवासियों को रोजी-रोटी का एक स्त्रोत प्रदान करते हैं। इसी सुंदरता के कारण किन्नौर को देव भूमि भी कहा जाता है। यहाँ की धरती पर उगने वाले फल, सूखे मेवे, बहुत ही उत्कृष्ट गुणवत्ता के होते हैं, और इसका प्रमाण इनकी पूरे भारतवर्ष में लोकप्रियता से पता चलता है। किन्नौर की प्रतिष्ठा को चार चांद यहाँ पर बहने वाली सतलुज नदी लगाती है, वादियों से गुजरती हुई यह नदी हिमाचल की पाँच प्रमुख नदियों में से एक है। इसे किन्नौर में "जंगती" के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है सोना और पानी।
आज, किन्नौर एक देवभूमि है जो विकास के नाम पर अपने संसाधनों को खो रही है। यहाँ का जीवन धीरे-धीरे अपने प्राकृतिक रूप से दूर हो रहा है। हमारी पृथ्वी पर अनियंत्रित निर्माण कार्य के परिणाम धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहे हैं, जोशीमठ की त्रासदी भी आने वाले कल की दिशा में संकेत देती है। क्या इन संकेतों का सरकार द्वारा कोई ठोस कदम उठाने के लिए पर्याप्त है, या क्या हमें अब भी इंतजार करना चाहिए जब तक हम अपनी आंखों से इस त्रासदी को सामने से नहीं देख लेते।
जय देवभूमि किन्नौर
I have read the Hindi version of this piece of writing and I am sorry to point out that there are innumerable spelling errors. Kindly re-edit this and rest is very well put. A sincere effort it seems ☺